जो आज बहार है कभी पतझड़ था वो…

हर एक बात पर इतना क्यों अकड़ रहा है वो,
टूटा हुआ है अंदर से ज़र्रा-ज़र्रा झड़ रहा है वो।
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इतनी गहराई से कहाँ पढ़ते हैं किसी को लोग,
मेरी ग़ज़ल के पीछे की ग़ज़ल भी पढ़ रहा है वो।
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जिस लोहे से तुमने हथियार बनाए हैं ना यारो,
उसी लोहे से बैठा ख़ुदा की मूरत गढ रहा है वो।
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उसकी मुस्कुराहट देखकर महसूस होता तो है,
जो आज बहार है कभी पतझड़ रहा है वो…।
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लगता है घर का माहौल कुछ ठीक नहीं उसके,
राह चलते बात-बात पर झगड़ रहा है वो…।
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शाम का वक्त है ख्यालों के दरिया किनारे होगा,
वो देखो “उज्जैनी” नया विचार पकड़ रहा है वो।