कहानी: दो रूपये कम हैं | शैलेन्द्र “उज्जैनी”
आज बाहरवी का नतीजा आने वाला है. सब जगह मंदिरों में छात्र-छात्राओं की भीड़ उमड़ी पड़ी है. हो भी क्यों न आखिर जिंदगी का सबसे बड़ा पायदान होता है बाहरवी का नतीजा, जो भविष्य का निर्धारण करता है.
शाम होते-होते धीरे धीरे कुछ चेहरो कि मायूसियां बढती जा रही हैं तो कुछ लोग खुशी से फूले नही समा रहे हैं. इस उथल पुथल के बीच गाँव के बगीचे के मेज पर एक लड़का बैठा है जिसके आँसू नही रूक पा रहे हैं. ना कोई उसे ढाँढ़स बँधाने वाला है ना कोई आँसु पोंछने वाला ही. आज सुनील का घर जाने का मन नही कर रहा था. शाम हो चली थी सुनील के पिता ढूंढ़ते हुए बगीचे तक पहुँच जाते हैं. पिता को देखकर सिसकता हुआ सुनील फूट फूटकर रोने लगता है. इस दर्द को वो ही समझेगा जिसने कभी ग़रीब की झोपड़ी मे झाँककर देखा हो कि कैसे ग़रीबो के बच्चे भूखे पेट रहते हुए भी परिवार का साथ निभाते हुए ज्ञानर्जन करते है.
बाहरवी में असफल हुआ तो क्या हुआ बेटा कोई बात नही. तू तो इतना बहादुर है बेटा …चुप हो जा… नही रोते …सुनील के आँसू पोछते हुए पिता ने उसे गले लगा लिया. ढाँढस बँधाते हुए गले से लिपटाकर जैसे -तैसे उसे घर लाते हैं.
आज सुबह सुनील जल्दी उठ गया. दैनिक कार्यो से निवृत्त होकर पुरानी संदूक खोलकर चुपचाप अपने कागज प्रमाणपत्र झोले मे रख रहा था. छप्पर पे कबेलु के नीचे जहाँ कुछ पैसे वो जमा करता था निकाल लिये थे उसने. सब सो रहे थे और वो दबे पाँव निकल जाता है. अपने दिमाग मे विचारो की उधेड़बुन लिए हुए उसे अब कोई रास्ता सूझ नही रहा था. नैराश्य उस पर पूरी तरह हावी हो गया था. अब वो पढ़ाई नही करेगा ये निश्चय वो मन ही मन कर चुका था. अब किसी बड़े शहर मे जाकर काम धंधा करेगा. अभी बिना किसी को बताए चला जाएगा अगर कुछ मदद करने लायक कमा पाया कुछ बन पाया तो परिवार की मदद करने ज़रूर लौट आउँगा. ये सोचते- सोचते सुनील करीब चार पाँच मील पैदल चल चुका था. रेलवे स्टेशन के बाहर उसने पलटकर ठंडी साँस लेते हुए अपने शहर को लगभग आखरी सलाम करते हुए रेलवे स्टेशन के गेट मे प्रवेश किया. पूछताछ काउन्टर पर भोपाल के लिए गाड़ी है. आँधे घंटे बाद प्लैटफॉर्म एक पर अन्दर से जवाब आया. सुनकर वह आगे टिकट की लाईन मे लग जाता है. कुछ समय मे सुनील टिकट खिड़की के बिल्कुल सामने था.
सुनील – भोपाल का टिकट कितने का है?
अधिकारी- पंद्रह रूपये का…
सुनील अपने हाथो मे दबाये पसीने मे भीगे सिक्के ओर एक छोटा नोट गिनता है. केवल तैरह रूपये निकलते है. साहब मेरे पास तेरह रूपये हैं मुझे दे दो ना टिकट. भोपाल का मेरा जाना ज़रूरी है सुनील गिडगिडाते हुए बोला.
अधिकारी -जल्दी करो भैया पीछे बहुत लोग खड़े हैं. लाईन मे पूरे पैसे लेकर आओ. सुनील उदास मन से रेलवे स्टेशन के गेट के बाहर एक मुंडेर पर बैठ जाता है. जाने क्यों उसकी आँखे एका एक गीली हो उठती हैं. वो मन ही मन सोच रहा है कि किसी से दो तीन रुपये माँग लेता हूँ. यहाँ से तो निकलूँ. जैसे तैसे आगे की आगे सोचेंगे.
सुनील एक जाते हुए व्यक्ति कि तरफ पैसे माँगने बढ़ता ही है कि पीछे से आवाज़ सुनाई देती है… अरे सुनीलवा तु यहाँ क्या कर रहा है इतने सवैरे-सवैरे !
सुनील- बाबा मै ..!बाबा वो मै ! मै तो!
बाबा- मै , मै क्यो कर रहा है… बताता क्यों नही बे..?
सुनील बहाना बनाते हुए- बाबा मेरे माड़साहब परिवार सहित कहीं जा रहे थे तो स्टेशन तक सामान पहुँचाने कि मदद के लिए बुलायख था इसलीए चला आया.
बाबा-अच्छा है पर घर पे सुबह बता के कहे नही आया? अम्मा बड़बड़ा रही है कहाँ गया बिना बताए.
सुनील-बाबा तुम यहाँ ?
बाबा- आज इधर मालीपुरे की ही मजदूरी लगी है. एक छोटी छत कि भराई है. एक काम कर ई साइकिल से तू निकल जा हम तीन चार जन हैं कोई की साइकिल पर बैठ कर आ जाउँगा. ये कहते हुए बाबा चल दिये.
सुनील चेहरे पर झूठा संतोष का भाव लाते हुए बोला
हाँ बाबा ठीक है… निकल जाता हूँ.
सुनील के बनाए हुए मनसूबे पर पानी सा फिर गया था. अब वो साइकिल कहाँ रखकर जाए? अगर पैसे किसी से माँग भी ले तो? करीब आधा घंटे रेलवे स्टेशन के सामने मुँडेर पर बैठे -बैठे सुनील सब तरह से सोच विचार कर आगे पीछे सब तरफ से विमर्श करके आज वापस घर जाने की सोचता है ओर साइकिल स्टैंड से उतारकर चल पड़ता है गाँव के लिए.
लगातार सुनील के मन में यही विचार कौंध रहा था कि आज़ दो रूपये कम न होते तो मैं रेल में बैठकर निकल गया होता, अभी तक तो छुक-छुक करती रेलगाड़ी मीलों दूर तक ले गयी होती मुझे. विचार करते -करते गाँव कब आ गया सुनील को मालूम ही नही चला. कहते हैं ना समय एक बार टल जाता है तो टल ही जाता हे वैसे ही सुनील के घर से भाग जाने का समय टल ही गया था शायद. हाथ मे रखे तेरह रूपये को उसने देखा और सोचा, चलो घर के लिए कुछ राशन ही ले लेता हूँ.
घर पहुँचते ही माँ सुनील को देखकर बोल पड़ी कहाँ भटके फिर रहा हे रे भौर से? चा वा पिये बिना ही निकल पड़ा … ओर इ तेरे बापू कि साइकिल कहाँ से मिल गयी तुझे?
सुनील-हाँ वो ज़रा काम था हम ही माँग लिये बाबा से… वो उनके साथी के साथ बैठकर चले गये काम पे.
माँ- चल छोड़ सब हाथ मुँह धोकर चाय पी ले ओर ज़रा कुल्हाड़ी लेकर लकड़ी फाड़ ले खाना बनाने के लिए.
सुनील हाँ हाँ करता हुआ मौरी कि फर्सी पर हाथ पाँव धोकर जलते चूल्हे से तपेली उतारकर चार गिलास में छान लेता है. धिरे -धिरे चाय पीते पीते पूरे घर को निहारते हुए सुनील कि नज़र अपने छोटे भाई ओर दोनो बहनो पर पड़ती है. मन ही मन वह सोच रहा है कितना स्वार्थी है वो केवल अपने बारे में अपने भविष्य के बारे में सोचते हुए इन सब को छोड़कर जा रहा था. ज़रा सी असफलता से निराश होकर? मेरे छोटे भाई बहनो का भी तो भविष्य अभी बाकी है. मुझे अभी बाबा का सहारा भी बनना है. सुनील की आँखे गीली होने लगती है. सुनील अपना इरादा बदल चुका था.
साइकिल उठाकर सीधे नाके की तरफ़ दौड़ा. वहां से कुछ ही दूर एक होटल पर उसके बचपन का दोस्त काम करता था. होटल के आगे साइकिल खड़ी कर वह होटल में प्रवेश करता है पर भीड़ देखकर सुनील एक ओर बैठ जाता है. उसका दोस्त विजय सभी ग्राहको को निपटाने के बाद सुनील की ओर बढ़ा और उसे गले लगाकर बोला. अरे यार बड़े दिनो बाद आया …कल तो तेरा बाहरवी का नतीजा आया होगा ना? समझा मिठाई खिलाने आया है ना? यह सुनकर सुनील फफककर रोने लगता है. विजय इतने में सुनील का पूरा हाल समझ जाता है. आखिर बचपन का यार जो ठहरा. विजय अपने सेठ से आधे घंटे की छुट्टी लेकर सुनील को उसकी साइकिल पर बैठाकर पास ही खाली बगीचे में ले जाता है. हाँ सुनील अब पूरी बात बता… आज तक मैने तुझे इतना टूटा हुआ कभी नही देखा. सुनील सारी बात विजय को बताता है.
इसके पहले के विजय कुछ बोल पाता सुनील आँसू पोछते हुए एकदम से बोला कोई काम हो तो बता यार तेरी होटल पर ही लगवा दे. विजय सुनील को डाँटते हुए बोला पगला गया है? क्या काम करेगा? गिलास धोएगा तेरे बाप को क्या जवाब दूँगा मैं?अरे इतना होनहार है तू… ई सब तेरे लिए नही हे रे… ये सब हम गँवारो का काम है. और तुझे तो अभी आगे पढ़ना है.
सुनील फिर बोला तू अगर सच्चा दोस्त है मेरा तो कल तक मेरे लिए छोटे -मोटे कोई काम का इंतजाम कर दे. जिससे दो पैसे कि मदद कर सकूं घर में. ये कहता हुआ सुनील आँसू पोछते हुए साइकिल उठाकर चल देता है. चल विजय तुझे होटल तक छोड़ दूँ.
विजय- जा तू मैं अभी थोड़ी देर और बैठूंगा. आधे घंटे में वक्त बाकी है अभी.
घर जाकर सुनील अपना फैसला माँ को बता देता है. पत्राचार से पढ़ाई कर साथ मे काम करने की बात बाबा को कहने को कहता है.
बाबा- सुनील बेटा तू इतना बड़ा हो गया है? अभी तेरा बाप जिंदा है. कोई कमी हो तो बोल ओर मेहनत मजदूरी करके पूरी कर दूँगा… पर तू अपनी पढ़ाई में फजीहत मत पैदा कर बेटा.
सुनील- अरे बाबा मै पढाई थोड़े छोड़ रहा हूँ. मै तो बस पढ़ाई के साथ आपका हाथ बटाना चाहता हूँ. फिर ये तीनो को भी बाबा हमे अच्छी तालीम दिलानी है कि नही? सुनील अपने भाई बहनों की तरफ देखते हुए बोला.
बाबा- ठीक है बेटा मैं इतना पढ़ा लिखा तो हूँ नही तू सोच समझकर फैसला कर ले.
इतने मे विजय बाहर से आवाज लगाता है …सुनील…सुनील …
हाँ यार आया मुझे पता था तु ज़रूर आएगा सुनील बाहर आते हुए बोला.
विजय- एक अखबार बांटने का काम है कहो तो बात करूं?
सुनील- हाँ कर दे करुँगा यार कल से ही .
दिन चर्या एसे ही चलती रहती है. बाबा और सुनील मिलकर घर की बाग डोर अपने हाथो मे ले लेते हैं. सुनील भी खूब मन लगाकर पढ़ने लगता है. घर की स्थति थोड़ी ठीक हो जाती है. छोटे भाई बहन भी मेहनत से पढने लिखने लगते हैं. इस बात को करीब दस बरस बीत जाते हैं.
आज अचानक नाके की होटल पर सफैद एम्बैसेडर रूकी है. विजय दौड़ता हुआ कार की तरफ़ आया. आखिर उसके बचपन का यार न्यायधीश जो बन गया है.
सुनील- विजय को गले लगाते हुए बोला यार तुझे बोला है ना बंगले पे मिलने आ जाया कर. मेरे पास वक्त नही रहता. तू तो आ जाया कर. बता तुझे आने जाने की कोई मनाही है क्या?
विजय- नहीं यार तू तो दिल में बसता है मेरे …मुलाकात ना भी हो पाती है तो क्या ?
सुनील- यार बात तो तेरी भी ठीक है पर तुझे देखे बिना मुझे चैन कहाँ यार…
ये सब बाते देखकर भीड़ इकटठी हो जाती है नाके पर. हो भी क्यों न एक सत्र न्यायधीश एक छोटे से होटल के मुलाजिम को ऐसे गले लगाए हुए है जैसे कृष्ण ने सुदामा को गले लगाया होगा शायद.
विजय- जज साहब ये तो बताओ आपने इतने आलीशान बंगले का नाम दो रूपये कम है क्यो रखा है? ये क्या राज है भाई? बड़ा अजीब सा नाम है…
विजय को तो ये राज नही पता मगर आप लोग को तो पता है दो रूपये कम है का राज़.