इको फ्रेंडली कपडे, इस्तेमाल करने के बाद बन जायेंगे खाद
हम जो सामान ख़रीदते हैं, उसमें से कुछ न कुछ हिस्सा कचरे के तौर पर भी निकलता है. ऐसे कचरे के पहाड़ दुनिया भर में चुनौती खड़ी कर रहे हैं. दरिया और समंदर गंदे हो रहे हैं. शहरों में बदबू फैल रही है. आज की डेट में कंपनियां कचरा कम करने के लिए तीन तरीक़े अपनाती हैं
रीसाइकिलिंगः किसी भी उत्पाद को दोबार उसी रूप में ढालकर इस्तेमाल करना. जैसे कि प्लास्टिक की बोतलें.
डाउनसाइकिलिंगः किसी उत्पाद को दूसरी चीज़ में बदलना. जैसे कि जूतों को बास्केटबॉल का कोर्ट बनाने में इस्तेमाल करना.
अपसाइकिलिंगः किसी उत्पाद को उससे बेहतर प्रोडक्ट में तब्दील करना. जैसे कि एक बार इस्तेमाल होने वाली प्लास्टिक की बोतलों से पॉलिस्टर कपड़ा तैयार करना, जो कई दशक तक पहना जा सकता है.
भले ही इन तरीकों को अपनाने के पीछे की मंशा यही होती है कि किसी तरह पर्यावरण को कम से कम नुकसान पहुंचाया जाए लेकिन फिर भी इन सारी प्रक्रिया में भी कचरा पैदा हो ही जाता है. निर्माण की प्रक्रिया के दौरान या इस्तेमाल के दौरान जो कारखाने इन्हें तैयार करते हैं, वो ग्रीनहाउस गैसें निकालते हैं. उनसे पर्यावरण बिगड़ता है. भारी धातुएं हवा में घुल कर प्रदूषण फैलाती हैं. इसके अलावा कचरा निकलकर नदियों और समुद्र में मिलता है. कुल मिलाकर किसी भी औद्योगिक उत्पाद को तैयार करने से इस्तेमाल करने के दौरान कचरा निकलता ही है.
क्या ऐसा मुमकिन है कि हम कोई उत्पाद बिना कचरे के तैयार कर लें? इसके लिए कुछ कंपनियों ने ‘क्रैडल टू क्रैडल’ नाम का तरीक़ा ईजाद किया है.
क्या है क्रैडल टू क्रैडल
इस सिद्धांत पर काम करने की शुरुआत पिछली सदी के सत्तर के दशक में हुई थी. मशहूर मुहावरे, ‘क्रैडल टू ग्रेव’ यानी उद्गम से क़ब्रिस्तान तक को नया रुख़ देकर इसे ईजाद किया गया था. 2002 में ‘क्रैडल टू क्रैडल’ नाम की किताब में माइकल ब्रॉनगार्ट और विलियम मैक्डोनाघ ने एक ऐसा ख़्वाब देखा था, जिसमें उत्पाद को बनाने में इंक़लाबी बदलाव लाने का विचार शामिल था. इन दोनों ने इसी नाम से एक संस्थान की स्थापना की है, जो न्यूनतम कचरा पैदा करके तैयार होने वाले उत्पादों को प्रमाणपत्र देती है. इनमें क़ालीन हैं, साबुन हैं और मकान बनाने में इस्तेमाल होने वाली लकड़ी के उत्पाद शामिल हैं.
कोई भी उत्पाद बनाने में क़ुदरती तरीक़ा अपनाया जाता है. जिसमें कोई भी बाई-प्रोडक्ट कचरा नहीं होता. हर चीज़ को दोबारा इस्तेमाल कर लिया जाता है. ऐसे तैयार टी-शर्ट को गोल्ड स्टैंडर्ड प्रमाणपत्र दिए जाते हैं, जिन्हें पहनने के बाद खाद बनाने में प्रयोग किया जाता है.
वैसे, बिना कचरे के कुछ भी तैयार करना बहुत बड़ी चुनौती है. निर्माण की पूरी प्रक्रिया को नए सिरे से सोचना पड़ता है. उत्पाद ऐसी चीज़ों से तैयार होना चाहिए, जिनका दोबारा इस्तेमाल हो सके. जिनसे प्रदूषण न फैले. न कोई ऐसा केमिकल निकले जो नुक़सान करे. इंसान उनके संपर्क में आए तो उसे नुक़सान न हो.
फैशन पॉजिटिव प्रोडक्ट्स
दुनिया भर में बहुत सी ऐसी कंपनिया हैं, जो लकड़ी का सामान, बल्ब, पेंट और दूसरी चीज़ें बनाते हैं. जो क्रैडल टू क्रैडल का प्रमाणपत्र हासिल करने की कोशिश करती हैं. ख़ास तौर से फ़ैशन उद्योग में तो इसके लिए होड़ लगी हुई है कि कचरामुक्त प्रोडक्ट बनाया जाए. ख़ुद इस संगठन ने ऐसे कपड़ों की रेंज बाज़ार में उतारी है, जिसे फ़ैशन पॉज़िटिव नाम दिया गया है.
फ़र्नीचर या खान-पान के उद्योग के मुक़ाबले फ़ैशन उद्योग छोटा है. पर, दुनिया भर में क़रीब 30 करोड़ लोग फ़ैशन इंडस्ट्री से जुड़े हैं. ये क़रीब 1.3 खरब डॉलर का कारोबार है. हर सेकेंड में फ़ैशन उद्योग एक ट्रक कपड़ा जलाता है. ऐसे में फ़ैशन उद्योग अगर ये तय करे कि वो बिना कचरे वाले कपड़े तैयार करेगा, तो भी यह काफी बड़ी बात होगी. पिछले कुछ दशकों में विकासशील देशों में कपड़ों का कारोबार तेज़ी से फैला है. बीस सालों में ये दोगुना हो गया है. इसका पर्यावरण पर गहरा असर पड़ रहा है.
इसीलिए क्रैडल टू क्रैडल संस्थान नए विचारों, उत्पादों और प्रक्रिया को दुनिया भर के कपड़ा निर्माताओं से साझा करता है, ताकि पर्यावरण को होने वाला नुक़सान कम किया जा सके.
इसीलिए फ़ैशन पॉज़िटिव मुहिम से एच ऐंड एम, केरिंग, स्टेला मैकार्टिनी, एईलीन फ़िशर, एथलेटा, लूमस्टेट, मारा हॉफ़मैन, जी-स्टार रॉ और मार्क ऐंड स्पेंसर जैसे ब्रैंड को जोड़ा गया है. जो साझा तकनीक की मदद से ऐसे धागे, रंग और डिज़ाइन तैयार करते हैं, जो पर्यावरण को नुक़सान न पहुंचाएं.
कपड़े की रीसाइकिलिंग
नई तकनीक विकसित करने का काम पिछले क़रीब दस साल से चल रहा है. इसी वजह से अब ऐसी टी-शर्ट विकसित हो सकी है, जिसे रंगने के लिए ऑर्गेनिक रौशनाई इस्तेमाल की गई है. इसके अलावा उसके रेशे भी ऐसे तैयार किए गए हैं, जो बिल्कुल भी नुक़सान न पहुंचाएं.
इन रेशों को ऑर्गेनिक कपास से तैयार पुराने कपडों से निकाला जाता है. इसके बाद इन्हें नए डिज़ाइन में ढाला जाता है और नई टी-शर्ट तैयार की जाती है. आम तौर पर कंपनियां पहले ढेर सारे कपड़े बना लेती हैं. फिर उन्हें विज्ञापन करके बेचने पर ज़ोर होता है. मगर, ये नई टी-शर्ट ऑर्डर मिलने पर ही तैयार की जाती है. इससे फ़ालतू के कपड़ों का ढेर नहीं लगता. फिलहाल ये टी-शर्ट टीमिल नाम की कंपनी तैयार कर रही है.
कई कंपनियों ने मिलकर दस साल में ये तकनीक विकसित की है. अच्छा लगता है जब एक-दूसरे से मुक़ाबला कर रही कंपनियां मिलकर, दुनिया की भलाई के लिए कोई काम करती हैं. इस टी-शर्ट को इस्तेमाल करने के बाद रीसाइकिल किया जा सकता है. यानी जब आप टी-शर्ट पहन चुकें, तो इसे कंपनी को लौटा दें. ये काम किसी उत्पाद का विज्ञापन करने से भी सस्ता पड़ता है. टी-शर्ट लौटाने पर भी ग्राहक को पैसे मिलते हैं. ये ‘क्रैडल टू क्रैडल’ मुहिम का ही हिस्सा है. सबसे मुश्किल काम तो अपने आप को ये समझाना है कि कुछ भी कचरा नहीं है. ये पूरे उत्पाद की प्रक्रिया बदलने की चुनौती होती है. ये सोचना आसान है पर करना बेहद मुश्किल.
स्त्रोत: बीबीसी