सालों सँभलना है एक पल में बहक जाना है

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शैलेन्द्र “उज्जैनी” vshailendrakumar@ymail.com

सालों सँभलना है एक पल में बहक जाना है,
दिल क्या हाथों से रेत सर-सर सरक जाना है।

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नाज़ करता है शजर *जिस समर *पे इतना यारों,
पकने तक रिश्ता फिर डाल से छिटक जाना है।

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नज़रें झुका के चलना नज़रें बचा के चलना कुछ कर,
जिस दिन मिलेगा वो उस दिन नज़र को नज़र से अटक जाना है।

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ना हिन्दु, ना मुस्लिम ना बच्चे पैदा होते मजहब साथ लेकर,
चार कदम चलकर मजहब की गलियों में भटक जाना है।

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जब तक दिमाग चलता है काम अच्छे ही करना भाई,
साठ बरस के ऊपर हम सब का ही सटक जाना है।

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ये माना ज़ालिम कि हिरणी सी चाल है तुम्हारी,
इतनी भी ना यूं लचको कि हर दिल को मचल जाना है।

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तेरे समझाने से “उज्जैनी” यूँ भी कौन समझता है,
ये छठी के बिगड़े हैं इनको तो फिर से बहक जाना है।

*पेड़
^फल      
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