कलयुगी रिश्तों की चीखें
रोज कहीं एक दामिनी फंस रही है
संबंधों के जाल में
कहीं कोई पिता तो कहीं कोई भाई ही छुपा बैठा है
भेड़िये के भेष में
कहीं कोई रावण छुपा बैठा है
साधु के भेष में
कहीं कोई तुलसी छला रही
भक्तों के ही जाल में
आज हर इंसान ही घूम रहा है
चेहरे पर चेहरा लगाए
सतयुग हो या कलयुग
कभी कोई दामिनी न बच सकी
अपनों के ही वार से
इस पत्थर दिल संसार से…
*****