“हाँ मैं ही हूँ तिरंगा”
मैं ही हूँ तिरंगा,
हाँ! कहा ना मैं ही हूँ तिरंगा,!
लेकिन इतने दिनो तक कहाँ था ?
क्यों मैं दिखाई नही दिया ?
अरे! लिपटा हुआ रखा था
सरकारी स्कूल की पुरानी सी अलमारी में,
जहाँ पड़ी थी धूल खायी किताबें,
छुपा बैठा रहा न्यायालय के स्टोर रूम में,
या सरकारी अस्पताल की एक्सपायरी दवाओं के बक्से के नीचे,
पुरातत्व विभाग की पुरानी मूरतों के पीछे,
क्या पूछ…दिखता क्यों नहीं मैं? आये दिन…
कैसी बात करते हो भाई,
अभी गणतंत्र दिवस को तो मैं दिखा था।
ऐसी सुन्दर सजावट…जैसे सबसे खुशकिस्मत बस मैं ही तो हूँ,
मगर शाम होते होते जाने क्यों प्यार कम सा होने लगता है!
उन्मुक्त आकाश से मुझे नीचे उतार
तह कर बंद कर देते हैं मुझे अँधेरे कमरों में,
अगले स्वाधीनता या गणतंत्र दिवस तक के लिए…
मैं ही हूँ देश की शान,
मुझसे है देश की पहचान
पर क्या बस इतना ही है मेरा मान?
*****