मिर्जा ग़ालिब की कुछ अनमोल शायरी
इश्क़ ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया
गैर ले महफ़िल में बोसे जाम के लब पैगाम के
खत लिखेंगे गरचे मतलब कुछ न हो
हम तो आशिक़ हैं तुम्हारे नाम के
इश्क़ ने “ग़ालिब” निकम्मा कर दिया
वरना हम भी आदमी थे काम के
बाद मरने के मेरे
चंद तस्वीर-ऐ-बुताँ , चंद हसीनों के खतूत .
बाद मरने के मेरे घर से यह सामान निकला
दिया है दिल अगर
दिया है दिल अगर उस को , बशर है क्या कहिये
हुआ रक़ीब तो वो , नामाबर है , क्या कहिये
यह ज़िद की आज न आये और आये बिन न रहे
काजा से शिकवा हमें किस क़दर है , क्या कहिये
ज़ाहे -करिश्मा के यूँ दे रखा है हमको फरेब
की बिन कहे ही उन्हें सब खबर है , क्या कहिये
समझ के करते हैं बाजार में वो पुर्सिश -ऐ -हाल
की यह कहे की सर -ऐ -रहगुज़र है , क्या कहिये
तुम्हें नहीं है सर-ऐ-रिश्ता-ऐ-वफ़ा का ख्याल
हमारे हाथ में कुछ है , मगर है क्या कहिये
कहा है किस ने की “ग़ालिब ” बुरा नहीं लेकिन
सिवाय इसके की आशुफ़्तासार है क्या कहिये
कोई दिन और
मैं उन्हें छेड़ूँ और कुछ न कहें
चल निकलते जो में पिए होते
क़हर हो या भला हो , जो कुछ हो
काश के तुम मेरे लिए होते
मेरी किस्मत में ग़म गर इतना था
दिल भी या रब कई दिए होते
आ ही जाता वो राह पर ‘ग़ालिब ’
कोई दिन और भी जिए होते
दिल-ऐ -ग़म गुस्ताख़
फिर तेरे कूचे को जाता है ख्याल
दिल -ऐ -ग़म गुस्ताख़ मगर याद आया
कोई वीरानी सी वीरानी है .
दश्त को देख के घर याद आया
हसरत दिल में है
सादगी पर उस के मर जाने की हसरत दिल में है
बस नहीं चलता की फिर खंजर काफ-ऐ-क़ातिल में है
देखना तक़रीर के लज़्ज़त की जो उसने कहा
मैंने यह जाना की गोया यह भी मेरे दिल में है
बज़्म-ऐ-ग़ैर
मेह वो क्यों बहुत पीते बज़्म-ऐ-ग़ैर में या रब
आज ही हुआ मंज़ूर उन को इम्तिहान अपना
मँज़र इक बुलंदी पर और हम बना सकते “ग़ालिब”
अर्श से इधर होता काश के माकन अपना
साँस भी बेवफा
मैं नादान था जो वफ़ा को तलाश करता रहा ग़ालिब
यह न सोचा के एक दिन अपनी साँस भी बेवफा हो जाएगी
सारी उम्र
तोड़ा कुछ इस अदा से तालुक़ उस ने ग़ालिब
के सारी उम्र अपना क़सूर ढूँढ़ते रहे
इश्क़ में
बे-वजह नहीं रोता इश्क़ में कोई ग़ालिब
जिसे खुद से बढ़ कर चाहो वो रूलाता ज़रूर है
जवाब
क़ासिद के आते -आते खत एक और लिख रखूँ
मैं जानता हूँ जो वो लिखेंगे जवाब में
जन्नत की हकीकत
हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन
दिल के खुश रखने को “ग़ालिब” यह ख्याल अच्छा है
बेखुदी बेसबब नहीं ‘ग़ालिब
फिर उसी बेवफा पे मरते हैं
फिर वही ज़िन्दगी हमारी है
बेखुदी बेसबब नहीं ‘ग़ालिब’
कुछ तो है जिस की पर्दादारी है
शब-ओ-रोज़ तमाशा
बाजीचा-ऐ-अतफाल है दुनिया मेरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे
कागज़ का लिबास
सबने पहना था बड़े शौक से कागज़ का लिबास
जिस कदर लोग थे बारिश में नहाने वाले
अदल के तुम न हमे आस दिलाओ
क़त्ल हो जाते हैं , ज़ंज़ीर हिलाने वाले
वो निकले तो दिल निकले
ज़रा कर जोर सीने पर की तीर -ऐ-पुरसितम् निकले जो
वो निकले तो दिल निकले , जो दिल निकले तो दम निकले
खुदा के वास्ते
खुदा के वास्ते पर्दा न रुख्सार से उठा ज़ालिम
कहीं ऐसा न हो जहाँ भी वही काफिर सनम निकले
तेरी दुआओं में असर
तेरी दुआओं में असर हो तो मस्जिद को हिला के दिखा
नहीं तो दो घूँट पी और मस्जिद को हिलता देख
जिस काफिर पे दम निकले
मोहब्बत मैं नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते है जिस काफिर पे दम निकले
लफ़्ज़ों की तरतीब
लफ़्ज़ों की तरतीब मुझे बांधनी नहीं आती “ग़ालिब”
हम तुम को याद करते हैं सीधी सी बात है
तमाशा
थी खबर गर्म के ग़ालिब के उड़ेंगे पुर्ज़े ,
देखने हम भी गए थे पर तमाशा न हुआ
काफिर
दिल दिया जान के क्यों उसको वफादार , असद
ग़लती की के जो काफिर को मुस्लमान समझा
नज़ाकत
इस नज़ाकत का बुरा हो , वो भले हैं तो क्या
हाथ आएँ तो उन्हें हाथ लगाए न बने
कह सके कौन के यह जलवागरी किस की है
पर्दा छोड़ा है वो उस ने के उठाये न बने
तनहा
लाज़िम था के देखे मेरा रास्ता कोई दिन और
तनहा गए क्यों , अब रहो तनहा कोई दिन और
रक़ीब
कितने शिरीन हैं तेरे लब के रक़ीब
गालियां खा के बेमज़ा न हुआ
कुछ तो पढ़िए की लोग कहते हैं
आज ‘ग़ालिब ‘ गजलसारा न हुआ
मेरी वेहशत
इश्क़ मुझको नहीं वेहशत ही सही
मेरी वेहशत तेरी शोहरत ही सही
कटा कीजिए न तालुक हम से
कुछ नहीं है तो अदावत ही सही
ग़ालिब
दिल से तेरी निगाह जिगर तक उतर गई
दोनों को एक अदा में रजामंद कर गई
मारा ज़माने ने ‘ग़ालिब’ तुम को
वो वलवले कहाँ , वो जवानी किधर गई
तो धोखा खायें क्या
लाग् हो तो उसको हम समझे लगाव
जब न हो कुछ भी , तो धोखा खायें क्या
अपने खत को
हो लिए क्यों नामाबर के साथ -साथ
या रब ! अपने खत को हम पहुँचायें क्या
उल्फ़त ही क्यों न हो
उल्फ़त पैदा हुई है , कहते हैं , हर दर्द की दवा
यूं हो हो तो चेहरा -ऐ -गम उल्फ़त ही क्यों न हो .
ऐसा भी कोई
“ग़ालिब ” बुरा न मान जो वैज बुरा कहे
ऐसा भी कोई है के सब अच्छा कहे जिसे
तमन्ना कोई दिन और
नादान हो जो कहते हो क्यों जीते हैं “ग़ालिब “
किस्मत मैं है मरने की तमन्ना कोई दिन और
आशिक़ का गरेबां
हैफ़ उस चार गिरह कपड़े की किस्मत ग़ालिब
जिस की किस्मत में हो आशिक़ का गरेबां होना
शमा
गम -ऐ -हस्ती का असद किस से हो जूझ मर्ज इलाज
शमा हर रंग मैं जलती है सहर होने तक ..
इश्क़
आया है मुझे बेकशी इश्क़ पे रोना ग़ालिब
किस का घर जलाएगा सैलाब भला मेरे बाद
जोश -ऐ -अश्क
ग़ालिब ‘ हमें न छेड़ की फिर जोश -ऐ -अश्क से
बैठे हैं हम तहय्या -ऐ -तूफ़ान किये हुए
लोग खामोखां बदनाम करते हैं,
हम आशिकों को परेशां करते है,
हमसे कायम कई रवायतें हैं दुनिया की,
हम ही हैं जो हवा को तूफान करते हैं.
वो हमें भूल भी जायें तो कोई गम नहीं,
जाना उनका जान जाने से भी कम नहीं,
जाने कैसे ज़ख़्म दिए हैं उसने इस दिल को,
कि हर कोई कहता है कि इस दर्द की कोई मरहम नहीं
हर शख्स को दिवाना बना देता है इश्क,
जन्नत की सैर करा देता है इश्क,
दिल के मरीज हो तो कर लो महोब्बत,
हर दिल को धड़कना सिखा देता है इश्क