खुद की क्षमताओं को जानना है तो विवेकानंद को जानो
स्वामी विवेकानंद युवाओं में असीम संभावनाएं देखते थे. अपने विचारों में उन्होंने हमेशा युवाओं का जिक्र किया औरउन्हें सही मार्ग दिखाने का काम किया. इन युवाओं में ही आज कल के भारत की छवि दिखती है. गर्व करने वाली बात यह है कि दुनिया के विकसित देश भी भारत से सिर्फ इसलिए रश्क करते हैं कि यहाँ युवा जनसँख्या भारी तादाद में है. आज भारत उस मुकाम पर खड़ा है जहाँ युवा शक्ति बीते सात दशकों या आजादी के समय के तमाम सपनों को सच कर दिखाना चाहती है. बस इसे सही रास्ता दिखाने की जरूरत है. वरना हम अपने इस सुनहरे भविष्य के सपने को गँवा भी सकते हैं.
असल में पिछले कुछ समय में हमारी युवा पीढी इंटरनेट जेनेरेशन में बदल गयी है. इनके लिए जानकारी और ख़बरों का मतलब सिर्फ इंटरनेट है. लेकिन इंटरनेट कोई ऐसा विश्वस्त माध्यम नहीं है जहाँ सिर्फ सही और सटीक बातें ही लोगों तक पहुंचाई जाती हों. ख़बरों के इस भेड़चाल की दुनिया में कई ऐसे लोग भी मौजूद हैं जो बेमतलब की ख़बरों को सिर्फ अपने फायदे के लिए इस युवा पीढी तक पहुंचाते हैं. आज इंटरनेट पर ऐसे कई युवा मिलेंगे जो धर्म के नाम पर अपशब्दों का इस्तेमाल और भद्दे कमेंट्स करते दिखेंगे. दुःख की बात यह है कि यह सब भारत और भारतीयता के नाम पर होता है.
कविवर रविन्द्रनाथ टैगोर ने एक बार रोम्या रोलां से कहा था भारत को जानना है तो विवेकानंद को जानो. यह बात सिर्फ तब के लिए बल्कि आज भी उतनी ही महत्त्व रखती है. अपने 20 सितम्बर को शिकागो में सर्वधर्म सम्मलेन में दिए गए भाषण में उन्होंने अमेरिका से कहा था ‘भारत को धर्म नहीं रोटी चाहिए. वे हमसे रोटी मांगते हैं लेकिन हम उन्हें धर्म दे रहे हैं.’ क्या यह बात आज के परिप्रेक्ष्य में सही नहीं है? जहाँ सभी राजनीतिक दल युवाओं के रोजगार उनके उज्जवल भविष्य की चिंता न करके उन्हें उनके धर्म के नाम पर आपस में लड़ाने का काम कर रहे हैं. इस सम्मलेन में उन्होंने खुद को विश्व के सबसे प्राचीन धर्म के प्रतिनिधि के तौर पर पेश किया. उन्होंने लोगों को बताया कि भारत के पास पूरी दुनिया को देने के लिए पर्याप्त धर्म हैं. इस बात पर घमंड करने और अन्य धर्मों को नीचा दिखने के बजाय उन्होंने धर्म के झगडे में फंसी इस दुनिया को यह बताया की सभी धर्मों का मूल्य एक है.
उन्होंने लोगों से धर्म के आडम्बरों से निकल कर अपनी उन्नति और समाज की उन्नति के लिए भी काम करने का आह्वान किया. इस दृष्टि से देखें तो विवेकानंद के विचार इस जवान होती हुई इक्कीसवीं सदी के लिए कहीं ज्यादा प्रासंगिक नजर आते हैं. इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे कि पिछली एक सड़ी में हमारे विचार इतने विकसित नहीं हो पाए कि हम विवेकानंद के विचारों को पुराना कह सकें.