चूहे ने दिखाई बहादुरी, गोल्ड मैडल से किया गया सम्मानित
ब्रिटेन की एक चैरिटी संस्था ने अफ्रीकी नस्ल के एक विशाल चूहे को बहादुरी के लिए गोल्ड मेडल से नवाजा है. इस अफ्रीकी जाइंट पाउच्ड चूहे का नाम मागावा है और वह सात साल का है. उसने सूंघकर 39 बारूदी सुरंगों का पता लगाया. इसके अलावा उसने 28 दूसरे ऐसे गोला बारूद का भी पता लगाया जो फटे नहीं थे. शुक्रवार को ब्रिटेन की एक चैरिटी संस्था पीडीएसए ने इस चूहे को सम्मानित किया.
मागावा ने दक्षिण पूर्व एशियाई देश कंबोडिया में 15 लाख वर्ग फीट के इलाके को बारूदी सुरंगों से मुक्त बनाने में मदद की. इस जगह की तुलना आप फुटबॉल की 20 पिचों से कर सकते हैं. यह बारूदी सुरंगें 1970 और 1980 के दशक की थीं जब कंबोडिया में बर्बर गृह युद्ध छिड़ा था.
अब भी 60 लाख वर्ग फीट का इलाका ऐसा बचा है जिसका पता लगाया जाना बाकी है. इन बारूंदी सुरंगों के कारण 1979 से अब तक 64 हजार लोग मारे जा चुके हैं जबकि 25 हजार से ज्यादा अपंग हुए हैं.
मागावा का वजन सिर्फ 1.2 किलो है और वह 70 सेंटीमीटर लंबा है. इसका मतलब है कि उसमें इतना वजन नहीं है कि वह बारूदी सुरंगों के ऊपर से गुजरे तो वे फट जाए. वह आधे घंटे में टेनिस कोर्ट के बराबर जगह की तलाशी ले सकता है. इंसानों को इतने बड़े इलाके को मेटल डिटेक्टरों के सहारे साफ करने के लिए चार दिन चाहिए.
कैसे करते हैं विस्फोटकों की तलाश
विस्फोटकों का पता लगाने में अब कुत्तों को प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है. चूहों की कुछ प्रजातियां विस्फोटकों का पता करने में उतनी ही कुशल हैं जितने कि सूंघने वाले कुत्ते. थाईलैंड, अंगोला, कंबोडिया और मोजांबिक में बारूदी सुरंगों का पता लगाने के लिए चूहों का इस्तेमाल किया जा रहा है.
चूहों को सिखाया जाता है कि विस्फोटकों में कैसे रासायनिक तत्वों को पता लगाना है और बेकार पड़ी धातु को अनदेखा करना है. इसका मतलब है कि वे जल्दी से बारूदी सुरंगों का पता लगा सकते हैं. एक बार उन्हें विस्फोटक मिल जाए, तो फिर वे अपने इंसानी साथियों को उसके बारे में सचेत करते हैं. उनकी इस ट्रेनिंग में एक साल का समय लगता है.
सात साल की उम्र पूरी करने के बाद अब मागावा अपने रिटायरमेंट के करीब है. कैलिफोर्निया के सैन डिएगो चिड़ियाघर का कहना है कि जाइंट अफ्रीकी पाउच्ड चूहों की औसत उम्र आठ साल होती है.
जानिए चूहों से जुड़ी कुछ मजेदार बातें
खोजी चूहे
चूहों की कोई 65 किस्मों का पता है. इनमें से ज्यादातर दूरदराज के जंगलों में रहते हैं. इनकी शुरुआत दक्षिण पूर्वी एशिया में हुई मानी जाती है. यहां से इंडोनेशिया के रास्ते चूहे भारत और चीन में फैले और फिर न्यू गिनी और ऑस्ट्रेलिया तक. मध्यकाल में जाकर चूहे यूरोप पहुंचे. उसके पहले तक नॉर्वे रैट और ब्राउन रैट नामक चूहों की किस्में ही दुनिया भर में फैली थीं.
पालतू बने साफ चूहे
छोटे चूहों को अक्सर पालतू जानवरों की तरह पाला जाता है. वे बहुत शर्मीले नहीं होते और इंसान के साथ रहने की उन्हें आदत पड़ गई है. खराब छवि के बावजूद चूहे बहुत सफाई पसंद जानवर होते हैं. अक्सर वे अलग अलग रंग के होते हैं और इसलिए रंगीन चूहे कहलाते हैं. उन्हें पालने की एक और दलील यह है कि वे बहुत रोंयेदार भी होते हैं.
चतुर होते हैं चूहे
कपटी और धूर्त छवि वाले चूहे परिवारों में रहते हैं. गिरोह के सदस्य एक दूसरे को गंध की मदद से पहचानते हैं. समुदाय को जारी रखने के लिए ताकतवर चूहे कमजोर चूहों को छोड़कर चले जाते हैं और छोटे चूहों को पहले खाने को मिलता है. चूहे बहुत ही चतुर होते हैं. वे खोने पर भी अपना रास्ता याद रखते हैं और जरूरत पड़ने पर दूसरा रास्ता लेकर भी वापस घर पहुंच सकते हैं.
शोध में सहायक
घिनौनी छवि होने के कारण जब चूहों का इस्तेमाल रिसर्च के लिए होता है तो शायद ही कोई हंगामा होता है. चूंकि वे बहुत तेजी से प्रजनन करते हैं और रखरखाव में सस्ते होते हैं, इसलिए उन्हें परीक्षण के सबसे आदर्श माना जाता है. जर्मनी में ही हर साल करीब 500,000 चूहों का इस्तेमाल रिसर्च के लिए होता है.