बलून के जरिये दूर दराज के इलाके में भी मिलेगा फास्ट इंटरनेट
जब हम ग्लोबल इंटरनेट एक्सेस की बात करते हैं तो हम देखते हैं कि अलग अलग देशों की बीच बहुत अंतर है. 96 फीसदी दक्षिण कोरियाई नियमित रूप से ऑनलाइन रहे हैं, वहीं सेंट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक में सिर्फ 5 फीसदी लोग इंटरनेट इस्तेमाल करते हैं. ये स्थिति अजीब लगती है. लेकिन पूरी दुनिया को तारों के सहारे जोड़ना बहुत ही मुश्किल और खर्चीला है. लेकिन एक उपाय है, वायरलेस इंटरनेट, वो भी ऊपर से.
कैसे काम करता है वायरलेस इंटरनेट
बहुत ही बड़ी रेंज वाला एक बहुत ऊंचा सेल टावर आस पास के कुछ छोटे टावरों को सिग्नल भेजता है. मोबाइल फोन इन्हीं लोवर रेंज टावरों से कनेक्ट होते हैं. लेकिन जैसे जैसे इन टावरों से दूरी बढ़ती है, कनेक्शन कमजोर होने लगता है. अगर दूर दराज के किसी इलाके में कुछ ही लोग रहें तो टेलिकम्युनिकेशन कंपनी वहां तक कनेक्शन पहुंचाने में पैसा शायद ही खर्चती है. इसीलिए स्पेस एक्स और गूगल जैसी कंपनियां इसके लिए ऊपर जाने की बात कर रही हैं
स्पेस एक्स दुनिया को अपने ‘स्टारलिंक’ प्रोजेक्ट से जोड़ना चाहती है. यह छोटी सैटेलाइटों का एक सिस्टम है. उपग्रहों का वजन करीब 200 किलोग्राम होगा. स्पेस एक्स के रॉकेट ही इन्हें अंतरिक्ष में 340 से 1150 किलोमीटर की ऊंचाई में छोड़ेंगे.
एक बार एक्टिवेट होने के बाद, ये सैटेलाइटें ग्राउंड स्टेशन से सिग्नल रिसीव करेंगी. उन्हीं सिग्नलों को धरती के बड़े इलाके में वापस भेजेंगी. यह दायरा ग्राउंड स्टेशन की क्षमता से कहीं ज्यादा होगा. सैटेलाइटें आपस में कनेक्ट रहेंगी. इससे सिस्टम ज्यादा स्थिर बनेगा और निश्चित रूप से तेज ट्रांसमिशन रेट देगा.
सैटेलाइटों की पहली किस्त आकाश में तैनात हो चुकी है. मई 2019 में स्पेस एक्स ने 60 सैटेलाइट इंस्टॉल कीं. ये उपग्रह पूरे अमेरिका को ध्यान में रखेंगे. पूरे विश्व में यह सेवा फैलाने के लिए स्टार लिंक को करीब 12,000 सैटेलाइटों की जरूरत पड़ेगी. इनकी अनुमानित लागत करीब 10 अरब अमेरिकी डॉलर आएगी.
बलून से बना प्रोजेक्ट लून
अल्फाबेट, गूगल की यह कंपनी इतना बड़ा इरादा नहीं रखती. कंपनी की इस योजना का नाम है प्रोजेक्ट लून. इसके लिए गुब्बारों (बैलून्स) का एक सिस्टम विकसित किया जा रहा है, इसी वजह से नाम है ‘लून.’ ट्रांसमीटरों से लैस गुब्बारे पृथ्वी के वायुमंडल की दूसरी परत स्ट्रेटोस्फीयर में जाएंगे और एक दूसरे से कनेक्ट होंगे. करीब 18 किलोमीटर की ऊंचाई पर. यह सिस्टम भी स्पेस एक्स की ही तरह काम करेगा, लेकिन खर्चा काफी कम होगा.
टिकाऊ नहीं है यह सिस्टम
लेकिन गुब्बारों के साथ एक बड़ी समस्या भी है. वे नष्ट हो सकते हैं और उनकी उम्र भी करीब 200 दिन ही होगी. समयसीमा पूरी होने पर गुब्बारों को नेवीगेट कर चुनिंदा जगहों पर लाया जाएगा, जहां गूगल के कर्मचारी उन्हें बटोरेंगे. स्टारलिंक सिस्टम इसके मुकाबले बहुत ज्यादा टिकाऊ है.
स्ट्रेटोस्फीयर के साथ एक दिक्कत और है. वहां हवा होती है, ऐसे में गुब्बारों का क्या होगा. लेकिन गूगल इस मुश्किल को अवसर में बदलने की तैयारी कर रहा है. मौसम के व्यापक डाटा के जरिए गूगल गुब्बारों को नेवीगेट करने में हवा का सहारा लेना चाहता है. प्रोजेक्ट लून के साथ एक बहुत ही बड़ा फायदा जुड़ा है: यह कनेक्टिविटी बड़ी तेजी से सेट कर सकता है.
Source: Dw.com