ये हैं आपके शरीर में यूजलेस बॉडीपार्ट
जैविक विकास के हिसाब से चिम्पांज़ियों को इंसानों के सबसे क़रीब माना जाता है. लेकिन दोनों के जैविक ढांचे पर नज़र डालें, तो कई अंतर तो पहली नज़र में सामने आ जाएंगे. इंसानों के शरीर में कई ऐसे अंग नहीं होंगे, जो चिम्पांज़ियों में होंगे और यही चीज़ इंसानों के साथ भी देखने को मिलेगी. जैविक ढांचे में फर्क की वजह इंसानों का सतत जैविक विकास है. लेकिन जैविक विकास की रफ़्तार बेहद धीमी होती है. इसी वजह से इंसानों के शरीर में आज भी कई ऐसी मांसपेशियां और हड्डियां पाई जाती हैं, जो किसी काम के नहीं हैं. ऐसे में हमारा शरीर प्राकृतिक इतिहास के किसी संग्रहालय से कम नहीं है.
लेकिन जब इन अंगों और मांसपेशियों का इंसानी शरीर में कोई मकसद नहीं बचा है तो कई लोगों में ये मांसपेशियां क्यों पाई जाती हैं. इस सवाल का जवाब जैविक विकास की धीमी गति में है. कुछ मामलों में ये अंग अपने लिए नए मकसद हासिल कर लेते हैं और इस प्रक्रिया को ‘एक्सपेटेशन’ कहते हैं.
आप शायद ये सोच रहे होंगे कि हमें ये कैसे पता है कि शरीर के इन हिस्सों का क्या मकसद था? इसका जवाब ये है कि इस मामले में हम सिर्फ अनुमान लगा सकते हैं. इन चीज़ों का आकलन वैज्ञानिक इस आधार पर करते हैं कि ये मांसपेशियां किसी जीव के अस्तित्व को बचाए रखने के लिए कितनी ज़रूरी थी.
आइए, बात करते हैं इंसानी शरीर के ऐसे ही कुछ हिस्सों के बारे में-
1 – पेड़ों पर चढ़ने में मदद करने वाली मांसपेशी
इंसानी कलाई में मौजूद इस हिस्से को समझने के लिए आपको बस एक काम करना है. एक सपाट जगह पर अपने हाथ को रखिए और उसके बाद अपने अंगूठे से सबसे छोटी उंगली को छूने की कोशिश करें. क्या अपनी कलाई पर आपको दो मांसपेशियां दिखाई दीं? अगर हां तो इसे ही पालमारिस लोन्गस कहते हैं. लेकिन अगर आपकी कलाई पर ये मांसपेशी दिखाई नहीं दी हो तो परेशान होने की ज़रूरत नहीं है. क्योंकि 18 फीसदी इंसानों में ये मांसपेशी नहीं पाई जाती है. और ये किसी तरह की कमी से भी नहीं जुड़ी हुई है. अगर इस मांसपेशी के मकसद की बात करें तो ठीक ऐसी ही मांसपेशी ओरेंगुटान जैसे जीवों में भी पाए जाती है. ये मांसपेशी इंसानों को पेड़ों पर चढ़ने में मददगार साबित होती होगी. लेकिन आजकल डॉक्टरों की नज़र इस मांसपेशी पर रहती हैं क्योंकि रिकंस्ट्रक्टिव सर्जरी करते हुए वे इसका इस्तेमाल कर सकते हैं. हाथ से लिए जाने वाले कामों में भी इसकी कोई भूमिका नहीं है.
2. कान की मांसपेशियां
अगर आप अपने कान हिला पाते हैं तो समझिए कि आप जैविक विकास के चलते-फिरते सबूत हैं. दुनिया में ज़्यादातर लोग अपने कानों को हिला नहीं पाते हैं. लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं जो इन मांसपेशियों की मदद से अपने कानों को हिला सकते हैं. डार्विन ने इन मांसपेशियों को ट्यूबरकल कहा है. बिल्ली और घोड़े जैसे जीवों में ये मांसपेशियां आज भी कान हिलाने के काम आती हैं. इससे इन जीवों को शिकारियों का पता लगाने, अपने बच्चों की तलाश करने और दूसरी तरह की आवाज़ों को समझने में मदद मिलती है.
3. टेल बोन
टेल बोन तो अपने आप में जैविक विकास की प्रक्रिया के दौरान इस्तेमाल से बाहर हुई चीज़ है. ये हमें हमारी खोई हुई पूंछों की याद दिलाती है जो पेड़ों पर चढ़ते समय संतुलन बनाने में मददगार हुआ करती थी. ये हड्डी ऐसी मांसपेशियों के अपने लिए नए मकसद तलाश लेने का बेहतरीन उदाहरण है. पहले ये पूंछ के रूप में इस्तेमाल होती थी. लेकिन अब ये हमारी मांसपेशियों को सहारा देने का काम करती हैं. दुर्भाग्य से, दूसरी ऐसी ही चीज़ें हमारे साथ नहीं रह सकीं. जैविक विकास के शुरुआती क्रम में इंसानी उंगलियों में एक तरह का जाल देखने में आता था. लेकिन धीरे-धीरे ये जाल भी अपने आप ग़ायब होता गया.
4. आंख की तीसरी पलक
क्या कभी आपने अपनी आंखों में गुलाबी रंग की मांसपेशी देखी है? इसे निक्टिटेटिंग मेम्ब्रेन या तीसरी पलक कहते हैं. इस हिस्से का काम क्षैतिज ढंग से झपकना था. लेकिन ये हिस्सा अब किसी काम नहीं आता है. बिल्लियों से लेकर चिड़ियों और दूसरे कई जानवरों में आप इस हिस्से को काम करता देख सकते हैं.
5. रोंगटे खड़े होना
क्या आप जानते हैं कि बिल्लियां खुद को ख़तरे में देखकर रोंगटे खड़े कर लेती हैं? ये उसी तरह है जब सर्दी या डरने की वजह से इंसानों के शरीर में रोंगटे खड़े हो जाते हैं. वैज्ञानिक इसे पिलोइरेक्शन रिफ़्लेक्स कहते हैं. चूंकि, मानव जाति ने अपने कुल जीवनकाल का एक बड़ा लंबा समय बालों से ढँके हुए गुज़ारा है. पिलोरेक्शन रिफ़्लेक्स एक बेहद प्राचीन तरीका है जिसकी वजह से कोई भी जीव अपने वास्तविक आकार से बड़ा दिख सकता है. वहीं, सर्द वातावरण में भी जीव अपने शरीर से ऊष्मा को बाहर निकलने से रोक सकते है.”
6. नवजातों का हाथ पकड़ना
किसी नवजात को देखते हुए आपने अक्सर देखा होगा कि वह किस तरह अपनी उंगली से बड़ों की उंगली पकड़ता है. नवजातों में पाए जाने वाले इस लक्षण को ग्रैस्पिंग रिफ़्लेक्स कहते हैं. ऐसा माना जाता है कि इस लक्षण का असली मकसद यही था. अगर इंसानी शरीर के दूसरे ऐसे ही हिस्सों की बात करें तो अपेंडिक्स भी एक ऐसा ही हिस्सा है जो शायद हमारे पूर्वजों को खाना पचाने में मदद करता होगा.