बिन कहे सब जान जाती है वो…

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शैलेन्द्र “उज्जैनी” vshailendrakumar@ymail.com

 

कभी जिसको देखा नहीं आराम करते हुए मैंने,
मगर देखा सबका खयाल रखते हुए मैंने।

सबको नये कपड़े दिलाकर खुश हो जाना,
सालो देखा सी एक सी पुरानी साड़ी को उसे पहने हुए मैंने।

पिता जब गुस्से में आए हम पर तमतमाए कभी,
हमेशा पाया सामने ढाल बनकर खड़े हुए मैंने।

मुझे तकलीफ क्या है मैं क्यों मायूस हूँ बैठा,
बिन कहे ही उस अनपढ़ को पाया मुझे पढ़ते हुए मैंने।

संडे सबका आता है पर माँ का नही आया,
उसे देखा निरंतर ही नदी सा बहते हुए मैंने।

कभी जीवन मे ख़ुदा दिखे ना दिखे मुझे,
मगर उस देवी को रोज देखा पूजा करते हुए मैंने।

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