सहगल का पहला और आखिरी इंटरव्यू.

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माना जाता है कि सहगल ने कभी कोई इंटरव्यू नहीं दिया था. 24 जनवरी 1947/48 को बंबई से निकलने वाली वीकली युगांतर में उनका आखिरी साक्षात्कार छपा जो शायद उनका पहला भी था. इसे 2008 में हर्षद सरपोतदार नाम के यूज़र ने ऑर्कुट पर शेयर किया था. इसे लिया था युगांतर के चीफ एडिटर वामन वासुदेव उर्फ बाल चिताले. वे अपने दोस्त जी. एन. जोशी की मदद से सहगल का इंटरव्यू ले पाए जो एक मराठी सिंगर और रेडियो अधिकारी थे और सहगल के बहुत अच्छे दोस्त भी थे. इंटरव्यू के अगले दिन ही सहगल स्वास्थ्य लाभ करने कुछ दिन के लिए जालंधर को निकले, लेकिन कभी नहीं लौटे. पेश है यह इंटरव्यू एडिटर वामन के ही शब्दों में-

सहगल माटूंगा में रहते थे. यहां एक नीले रंग का बंगला बना हुआ था जिसमें कॉर्नर वाले एक बड़े फ्लैट में उनका निवास था. जब मैंने अपने कॉमन फ्रेंड के साथ उनके लिविंग रूम में प्रवेश किया, उसके शालीनता और सादगी भरे इंटीरियर ने मुझे बहुत प्रभावित किया. मैं कम से एक ऐसी दीवार की उम्मीद तो कर ही रहा था जिसमें इस सुपरस्टार के अलग-अलग किरदारों और स्टाइल वाली फोटो लगी हों. लेकिन मैं दंग रह गया, वहां दीवार पर सिर्फ दो फोटो लगी थीं. एक उनके पिताजी की, एक उनकी मां की. कमरे के एक कोने में उनका पसंदीदा हार्मोनियम रखा हुआ था.

एक-दो पलों में सहगल वहां प्रस्तुत हुए. लंबे. पतले. गंजा सिर. मैं उनसे पहली बार मिल रहा था इसलिए उनकी सादगी और विनम्रता से पूरी तरह मुग्ध था. उन्होंने सफेद कुर्ता-पायजामा पहन रखा था और एक मुस्कान के साथ हमारा स्वागत कर रहे थे. (कुछ बातों के बाद) मैंने पूछा, “क्या इसे लिखने की इजाजत आप मुझे देंगे?” सहगल ने कहा, “बिलकुल”और तुरंत मुझे कुछ सादे काग़ज पकड़ाए. अपने बेड की ओर बढ़ते हुए सहगल ने कहा, “मुझे याद नहीं आता कि मैंने अब तक कभी भी कोई इंटरव्यू दिया है.” उन्होंने एक कंबल निकाला, अपने शरीर पर ओढ़ा और लेट गए. बोले, “उम्मीद है आप कृपा करके मुझे (लेटने की) इजाजत देंगे! कमजोर आदमी हूं. अभी तक पूरी तरह ठीक नहीं हुआ हूं.”

मैंने भी स्वतः जवाब दिया, “कहने की बात ही नहीं सर! मेरी कामना है कि आप जल्दी ही स्वस्थ हो जाएंगे!”
फिर सहगल ने कहा, “थैंक यू! अब आप मुझसे जो भी पूछना चाहें पूछ सकते हैं.”
मैंने पूछा, “अच्छा सर. ये बताएं, आप अपनी फिल्मों के बारे में क्या सोचते हैं?”
उन्होंने अपने कंधों को उचकाते हुए कहा, “इस बारे में कुछ कह नहीं सकता. क्योंकि मैंने कोई देखी ही नहीं है.”
“कोई प्रिव्यू तो देखा होगा?”
“नहीं, कभी नहीं!”
उनके इस जवाब से मैं बहुत सरप्राइज हुआ. फिर मैंने पूछा, “आप बॉम्बे क्यों आए? आपको ऩ्यू थियेटर्स (कलकत्ता) के उन कलाकारों के हाल तो पता ही रहे होंगे जो आपसे पहले बंबई आए थे! फिर भी आपने इतनी हिम्मत कैसे जुटाई?”
ईमानदारी से उन्होंने कहा, “इसके पीछे सिर्फ एक ही कारण था, पैसा. लेकिन मुझे कभी बढ़िया से फीस नहीं दी गई. मेरी उम्मीद जितनी भी नहीं. मुझे पक्का यकीन था कि बंबई मुझे कुछ और पैसा बनाने में मदद करेगी. लेकिन फ्रैंक होकर बोलूं तो न्यू थियेटर्स के निर्माताओं जितना काबिल बंबई में एक भी प्रोड्यूसर नहीं है.”
“बंबई में स्टूडियोज़ के बारे में आप सोचते हैं?” मैंने पूछा.

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वे बोले, “उन्हें स्टूडियोज़ मत कहिए! वो तो बस फैक्ट्रियां हैं. और ये फैक्ट्रियां इतनी नाकाबिल हैं कि आप कल्पना भी नहीं कर सकते. और ये बात मैंने रणजीत के चंदूलाल सेठ को भी बहुत सीधे बोली थी. बंबई में प्रोड्यूसर कम से कम समय में फिल्म का निर्माण करने का ही सिंगल टारगेट रखते हैं, और फिल्म पूरी होने पर शेखी बघारते हैं.” (रणजीत मूवीटोन, वो कंपनी जिसके साथ सहगल का एक साल का अनुबंध हुआ था और वे कलकत्ता फिल्म इंडस्ट्री को छोड़ बंबई आ गए थे. इस अनुबंध के लिए उन्हें 1 लाख रुपये मिले थे.)
यह कहते हुए सहगल मुस्कुराए और अपनी आंखें भींच ली. उसके बाद उन्होंने अपनी अनबुझी सिगरेट से एक नई सिगरेट जलाई और एक नए सवाल के लिए मेरी तरफ देखने लगे.
मैंने पूछा, “क्या आपको लगता है आप कलकत्ता में ज्यादा सफल थे?”
सहगल ने कहा, “मैं आपकी बात समझ गया! आपके कहने का मतलब है मेरे गानों ने कलकत्ता की तुलना में बंबई में अच्छा प्रदर्शन नहीं किया है. लेकिन मुझे नहीं लगता कि सिर्फ अच्छे गानों और अच्छी मैलडी से एक अच्छी फिल्म बन जाती है.”

“अगर आप एक अच्छी फिल्म बनाना चाहते हो तो आपको पर्याप्त समय चाहिए. आपको पर्याप्त रुपये चाहिए. बंबई के प्रोड्यूसर बस तेजी से फिल्में खत्म करने वाले लोग हैं. उनके पास न तो पूरे पैसे हैं और न ही पर्याप्त वक्त है.”

“मैं यहां पर अपने बारे में बहुत सी अफवाहें भी सुनता हूं. कि ‘सहगल बहुत ज्यादा पीता है’, ‘वो कभी टाइम पर सेट नहीं पहुंचता’, ‘सहगल शाम को सहगल नहीं रह जाता’ वगैरह वगैरह.”

“सच तो यह है कि ज्यादातर वक्त तो ये प्रोड्यूसर खुद भी बहुत शराब पिए रहते हैं और अपने स्टूडियो का किराया तक नहीं चुका सकते हैं.”

मैंने पूछा, “आप फिल्म लाइन में इतने साल से काम करते आ रहे हैं. कभी आपके दिमाग में आता है कि इस लाइन को छोड़ दें और कुछ नई चीज करें?”

सहगल ने कहा, “नहीं. ये लाइन छोड़ने के बारे में कभी नहीं सोचा. पिछले साल मैंने इतना ज्यादा काम किया कि अब मेरे फिजिशीयन ने सलाह दी है कि अगले छह महीने तक मैं बेड रेस्ट करूं.”

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“कल मैं अपने पैृतक स्थान जालंधर के लिए निकलूंगा.”
“जब मैं लौटूंगा तो खुद एक फिल्म प्रोड्यूस करने की कोशिश करूंगा. मुझे बहुत ही मजबूती से लगता है कि मुझे कुछ असली एजुकेशनल और जागरूकता वाली फिल्में बनानी चाहिए!”

..

कुछ देर में हम सहगल साब, उनकी पत्नी, बेटे और बेटियों के साथ डाइनिंग टेबल पर बैठे जिस पर एक बहुत ही साफ सफेद कपड़ा बिछा था.

सहगल ने अपना पहला निवाला लिया ही था कि मैंने एक नया सवाल सोच लिया.

मैंने पूछा, “आपकी आवाज का क्या? उसका खयाल कैसे रखते हैं?”

उन्होंने कहा, “आवाज तो भगवान की दी हुई चीज़ है! और इसे सहेज कर रखना कुछ और नहीं भगवान का ही कर्तव्य है. लेकिन अगर आप जानना चाहते हैं कि मैं ऐसा करने में भगवान का सहयोग कैसे करता हूं तो यहां देखिए!”

उन्होंने अचार के बर्तन की ओर इशारा करते हुए आगे कहा, “इन (अचार के) टुकड़ों की तरह, मैं भी अपनी आवाज मैलडी में डुबो देता हूं. क्यों न ये हमेशा के लिए सहेज कर रह जाएगी!”

कहने की जरूरत नहीं कि हम सब सहमति में जोर से हंसे.

अपने सामने बैठे लड़के और बच्चियों की ओर देखते हुए मैंने उनसे पूछा, “आपके बच्चे?”

सहगल ने उनकी ओर स्नेह भरी नजर डालते हुए कहा, “हां. तीन. और संयोग की बात है कि सभी आपकी सेवा में उपस्थित हैं! ये देहरादून से छुट्टियां मनाकर लौटे ही हैं.”

“बच्चों के लिए आपकी कोई योजना?” मैंने पूछा.

उन्होंने कहा, “नहीं. इन्हें अपने करियर के बारे में खुद ही फैसला करना होगा. मैं दखल नहीं दूंगा. लेकिन अगर वो मुझे पूछेंगे तो मैं उन्हें सलाह दूंगा कि कानून की पढ़ाई करें. इनके पिता को तो कानून की ए बी सी भी नहीं पता है!”

मैंने पूछा, “आपने इतनी सारी सुपरहिट फिल्में दी हैं और उनमें इतनी ज्यादा मेहनत की है कि अब तो आप रईस आदमी होंगे! और इससे इन बच्चों को निश्चित रूप से सपोर्ट मिलेगा कि वे जितना भी आगे तक चाहें अपनी पढ़ाई कर सकते हैं.”

अपने हाथ में लिए निवाले की ओर नजरें रखकर सहगल ने बोला, “फ्रैंकली कहूं तो रुपयों और धन को लेकर मेरे मन में कोई खास फीलिंग्स नहीं हैं.”

“इसका ये मतलब बिलकुल नहीं है कि मेरे पास पैसे नहीं हैं. मैंने अब तक एक या दो लाख रुपये बचत करके रखे हैं लेकिन वो भी अपने हालिया काम से. उसके लिए मुझे कम से चार फिल्मों में एक साथ काम करना पड़ा है. लेकिन ऐसा मैंने अपनी सेहत को दाव पर रखकर किया.”

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“ये बंगला मैंने हाल ही में खरीदा है और इसका श्रेय में फिल्म इंडस्ट्री को देता हूं. लेकिन अब मुझे कुछ आराम चाहिए.”

भोजन करने के बाद हम लोग फिर से लिविंग रूम में आ गए.

कोने में रखे हार्मोनियम ने फिर से मेरा ध्यान खींचा और मैं सहगल को पूछने से खुद को रोक नहीं पाया, “इस हार्मोनियम पर आप प्रैक्टिस करते होंगे?”

सहगल ने कुछ इमोशनल होते हुए कहा, “नहीं.”

रुंधे हुए गले के साथ उन्होंने बताया, “लेकिन ये मेरे सबसे अजीज़ दोस्त का है. यह फिल्म चंडीदास के समय से ही मेरे पास है. अब मैं इसका ज्यादा इस्तेमाल नहीं करता लेकिन मैं इसे हमेशा अपनी आंखों के आगे चाहता हूं. मेरे गुजरे हुए वक्तों की ये एक जिंदा मिसाल है!”
मुझे लगा कि अब बहुत हो चुका है और मैं इन बीमार जीनियस को और परेशान नहीं करना चाहता. वो तब तक बेड पर फिर से लेट ही चुके थे. तो मैं वहां से उठ गया. और उनके ठहाके के बीच जाने की इजाज़त ली.

अगले दिन 26 दिसंबर 1946 को जालंधर जाने के लिए सहगल रवाना हुए. स्टेशन पर उनको छोड़ने आए थे उनके दोस्त और बड़ी-बड़ी आंखों और जोरदार आवाज वाले अभिनेता के. एन. सिंह. ट्रेन जाने तक वे वहीं खड़े रहे. सहगल भी डिब्बे में चढ़े लेकर भीतर नहीं गए, दरवाजे पर खड़े होकर के. एन. को देखते रहे. ट्रेन आंखों से ओझल हो गई. ये बंबई में सहगल का आखिरी दिन था. फिर वे लौटकर नहीं आए.

कोई 22 दिन बाद 18 जनवरी 1946 को रेडियो पर पूरे भारत को समाचार सुनाया गया – “के. एल. सहगल नहीं रहे!”

दूरदर्शन पर एक इंटरव्यू देते हुए के. एन. सिंह ने रेलवे स्टेशन के आखिरी पलों को एक शेर में जाहिर किया थाः

“रुख़्सत के वाक़यात यहां तक तो याद हैं
देखा किए उन्हें हम, जहां तक नज़र गई.”

सहगल के आखिरी दिन जालंधर में कैसे बीते इसे लेकर उनकी भाभी ने कोई 32-33 साल पहले पंजाबी के बड़े लेखक बलवंत गार्गी को बताया था. उन्होंने याद करते हुए कहा था, “कुंदन बहुत ही अच्छे इंसान थे. अलग आदमी थे. आखिरी दिनों में बहुत बीमार थे और डॉक्टर ने उनको पूरे आराम की सलाह दी थी लेकिन वो हमें जोक्स सुनाते रहते थे और हंसाते रहते थे. वो गुजरे उससे कुछ दिन पहले अपना सिर शेव करवा लिया था और बोलने लगे कि जब बंबई वापस जाएंगे तो साधुओं और भक्तों के रोल करेंगे. लेकिन अचानक उनकी तबीयत बहुत बिगड़ गई और 18 जनवरी की सुबह उनकी मृत्यु हो गई.”

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