मोबाइल के साथ ही अपनी मेमरी से भी कुछ फाइलें नियमित रूप से डिलीट करें
पुराने दौर में इंसान का दिमाग आसानी से सजग हो जाता था. वक्त बीतने के साथ हमारे मस्तिष्क की चुनौतियां बढ़ती गईं. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के साथ ही सूचनाओं की बाढ़ हम तक पहुंच गई. मस्तिष्क पर इसका बेहद गहरा असर पड़ रहा है.
डिजिटल वर्ल्ड, जिसमें हर कोई एक नेटवर्क से जुड़ा है. हमारा दिमाग अकसर सूचनाओं और डाटा की सूनामी से घिरा रहता है. मस्तिष्क के लिए यह आदर्श स्थिति नहीं है. आम तौर पर हमारे सामने कोई स्थिति आती है, फिर मस्तिष्क उस पर चिंतन करता है. पहले हम उसके बारे में सोचते हैं और उसके बाद ही आगे बढ़ते हैं.
लेकिन जब हमारे सामने लगातार नई नई चीजें आ रही होती हैं, तो उनके बीच तालमेल बैठाने में मस्तिष्क को काफी मशक्कत करनी पड़ती है. इसके लिए वैज्ञानिक स्कैनर का भी इस्तेमाल करते हैं. वह सीधे लोगों के मस्तिष्क में झांकते हैं और देखते हैं कि मस्तिष्क का कौन सा हिस्सा सक्रिय है. जब इंसान को जटिल बाधा सुलझानी होती है, तो मस्तिष्क के अगले हिस्से की जरूरत पड़ती है. यह मस्तिष्क का वो हिस्सा है जो बिल्कुल माथे के पीछे होता है. यही वह अंग है जो बताता है कि किसी काम में कितने संसाधन लगाए जाने चाहिए. जब हमें एक ही साथ अलग अलग काम करने पड़ते हैं तो दिमाग का यही हिस्सा सबसे ज्यादा परिश्रम करता है. साथ ही तय करता है कि काम आपस में मिक्स न हों.
बच्चे और किशोर ऐसी परिस्थितियों में क्या करते हैं? उम्र की वजह से वे हर वक्त बदलावों का सामना कर रहे होते हैं. वे नई चीजें बड़ी तेजी से सीखते हैं. क्या वयस्कों के मुकाबले बच्चे या किशोर, टेस्ट को ज्यादा आसानी से सुलझाते हैं? कई शोधों के जरिए पता चलता है कि जब हम साथ में कोई काम कर रहे होते हैं तो उत्तर खोजने में बच्चों को ज्यादा समय लगता है. और बच्चे, वयस्कों की तुलना में ज्यादा गलतियां भी करते हैं.
दिमाग के अगले हिस्से का विकास 20 साल तक होता है. अलग अलग काम मिलने पर बच्चों का ब्रेन उतनी तेजी से स्विच नहीं कर पाता, जितनी तेजी से वयस्कों का करता है. लेकिन क्या सूचनाओं की बाढ़ इस पर भी कोई असर डाल रही है?
एक ताजा शोध के मुताबिक हम हर दिन औसतन 88 बार अपना फोन चेक करते हैं. उसमें फोटो वीडियो देखते हैं, दोस्तों से चैट करते हैं और न्यूज या अन्य चीजें पढ़ते हैं. युवा तो अपने फोन या अन्य मोबाइल डिवाइसों पर करीब सात घंटे बिताते हैं.
“किसी नई चीज से ज्यादा दिलचस्प और कुछ नहीं है. हम प्राकृतिक रूप से जिज्ञासु हैं, जन्म से. कौतूहल जगाने वाली चीजें हमें पसंद हैं. आधुनिक फोन बिल्कुल यही कर रहे हैं. आप जानना चाहते हैं, क्या किसी ने मुझे कुछ मैसेज किया, क्या किसी ने मुझ तक पहुंचने की कोशिश की, क्या मुझे कोई नया लाइक मिला. हर कोई प्रतिक्रिया चाहता है. यह रेस्पॉन्स जैसा है जो किसी के साथ आपके रिश्ते की, आपके परिवेश या फिर आपके खुद से जुड़े होने की पुष्टि करता है. कोई है जो मुझे देख रहा है, सुन रहा है और इसी नतीजे के चलते लोग खुद को अच्छी तरह जीवित महसूस करते हैं.
ऐसे कई और कारण हैं जो हमें फोन चेक करने के लिए प्रेरित करते हैं. एक है, बोरियत. अमेरिका में हुआ एक शोध इसे दर्शाता है. टेस्ट में शामिल लोगों को अकेले कमरे में इंतजार करने के लिए छोड़ दिया गया. उन्हें ऐसी मशीन से जोड़ा गया था जिसके जरिए वे खुद को बहुत ही हल्का बिजली का झटका दे सकें. कुछ ही मिनटों के बाद बोरियत और कौतूहल के चलते दो तिहाई पुरुषों और एक चौथाई महिलाओं ने वह बटन दबाया.
कई लोग हर जगह अपना फोन ले जाते हैं, भले ही वे दूसरे कमरे में ही क्यों न जाएं. कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिनके पास उनका फोन न भी हो तो वे वाइब्रेशन महसूस करते हैं या उन्हें रिंगटोन जैसी आवाज सुनाई पड़ती है. इसीलिए, मोबाइल फोन के साथ एक न्यूरोटिक एलिमेंट तो है ही.
इसके बावजूद कुछ न करना भी बहुत फायदेमंद हो सकता है. जब हम अपने दिमाग को आराम देते हैं तो रचनात्मकता को मौका मिलता है. अकसर इसी दौरान बेहतरीन आइडिया आते हैं. अति हर चीज की बुरी होती है. अगर आप लगातार खाते ही रहेंगे तो आप फट जायेंगे. सूचना के साथ भी ऐसा ही है. आपके मस्तिष्क के पास समीक्षा करने, प्राथमिकताएं तय करने और सोचने के लिए वक्त होना चाहिए. अपने दिमाग को जरूरत से ज्यादा सूचनाओं से ओवरलोड न करें. इसलिए कभी कभी कुछ वक्त अपने लिए निकालना भी बेहतर होता है. जिसमें आप अपने आस पास को और खुद को महसूस कर सकें. इससे आपके अन्दर एक नयी ताजगी और ऊर्जा का अनुभव होगा.