14 मार्च से शुरू हो रहा है होलाष्टक, इस दौरान ना करें यह काम

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गुरुवार, फाल्गुन शुक्लपक्ष अष्टमी 14 मार्च से फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा 21 मार्च तक होलाष्टक रहेगा। इस अवधि में भोग से दूर रह कर तप करना ही अच्छा माना जाता है। इसे भक्त प्रह्लाद का प्रतीक माना जाता है। सत्ययुग में हिरण्यकशिपु ने घोर तपस्या करके ब्रह्मा जी से वरदान पा लिया। वह पहले विष्णु का जय नाम का पार्षद था, लेकिन शाप की वजह से दैत्य के रूप में उसका जन्म हुआ था। वरदान के अहंकार में डूबे हिरण्यकशिपु ने देवताओं सहित सबको हरा दिया। उधर भगवान विष्णु ने अपने भक्त के उद्धार के लिये अपना अंश उसकी पत्नी कयाधू के गर्भ में पहले ही स्थापित कर दिया था, जो प्रह्लाद के रूप में पैदा हुए।

प्रह्लाद का विष्णु भक्त होना पिता हिरण्यकशिपु को अच्छा नहीं लगता था। दूसरे बच्चों पर प्रह्लाद की विष्णु भक्ति का प्रभाव पड़ता देख पहले तो पिता हिरण्यकशिपु ने उसे समझाया। फिर न मानने पर उसे भक्ति से रोकने के लिए फाल्गुन शुक्ल पक्ष की अष्टमी को बंदी बना लिया। जान से मारने के लिए यातनाएं दीं, पर प्रह्लाद विष्णु भक्ति के कारण भयभीत नहीं हुए और विष्णु कृपा से हर बार बच गए।

इसी प्रकार सात दिन बीत गए। आठवें दिन अपने भाई हिरण्यकशिपु की परेशानी देख उसकी बहन होलिका, जिसे ब्रह्मा जी ने अग्नि से न जलने का वरदान दिया था, प्रह्लाद को अपनी गोद में बिठाकर अग्नि में प्रवेश कर गई, पर हुआ उल्टा। देवकृपा से वह स्वयं जल मरी, प्रह्लाद को कुछ नहीं हुआ। नृसिंह भगवान ने हिरण्यकशिपु का वध किया। तभी से भक्ति पर आए इस *संकट के कारण इन आठ दिनों को होलाष्टक के रूप में मनाया जाता है।
इस अवधि में शुभ कार्य- गर्भाधान, विवाह, नामकरण, विद्यारम्भ, गृह प्रवेश और नव निर्माण आदि नहीं करना चाहिए। फाल्गुन शुक्ल अष्टमी से ही होलिका दहन करने वाले स्थान का चयन भी किया जाता है। पूर्णिमा के दिन सायंकाल शुभ मुहूर्त में अग्निदेव से स्वयं की रक्षा के लिए उनकी पूजा करके होलिका दहन किया जाता है।

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