जो आज बहार है कभी पतझड़ था वो…

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शैलेन्द्र ‘उज्जैनी’ vshailendrakumar@ymail.com

हर एक बात पर इतना क्यों अकड़ रहा है वो,

 टूटा हुआ है अंदर से ज़र्रा-ज़र्रा झड़ रहा है वो।

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 इतनी गहराई से कहाँ पढ़ते हैं किसी को लोग,

 मेरी ग़ज़ल के पीछे की ग़ज़ल भी पढ़ रहा है वो।

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 जिस लोहे से तुमने हथियार बनाए हैं ना यारो,

 उसी लोहे से बैठा ख़ुदा की मूरत गढ रहा है वो।

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 उसकी मुस्कुराहट देखकर महसूस होता तो है,

 जो आज बहार है कभी पतझड़ रहा है वो…।

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 लगता है घर का माहौल कुछ ठीक नहीं उसके,

 राह चलते बात-बात पर झगड़ रहा है वो…।

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 शाम का वक्त है ख्यालों के दरिया किनारे होगा,

 वो देखो “उज्जैनी” नया विचार पकड़ रहा है वो।

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